Nakoda (Hindi: नाकोडा तीर्थ) is a village in the Barmer District of Indian state of Rajasthan. The village name is Mewanagar in the Rajasthan state Government records. This village was known by the names of Nagara, Viramapura and Maheva at different times in the history. When Nakoda Parsvanatha Jain temple was made this village gained popularity by the name of Nakoda. Nakoda is a holy place of the Jains. Shri Jain Shwetambar Nakoda Parshwanath Temple, Nakoda
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Nakoda pilgrimage is a center of worship for the masses due to its miraculous peril-preventing power. On remembering Nakoda, the Lord makes the path of life hurdle-free and paved. The common masses maintain that the 'Prasad' (offerings in the form of sweets, fruits etc.)dedicated here should be distributed within the precincts of the pilgrimage. Taking the 'Prasad' elsewhere from the parameter of the pilgrimage is not considered to be proper. Pilgrims start offering oil on the idol of Shri Bhairavji from 11.30 in the morning, which is available at Modi khana near the pedhi. The dadawadi of dada guru Jinkushal suriji is built-up on a small hill near the temple. Pilgrims offers their homage to him by taking darshan of his pagaliyas of dada guru. The look of temple from the top of the hill is very interesting.
Hundreds-thousands of travellers come here daily from every corner of India and maintain partnership in the name of Bhairav even in their business. This is indicative of a unique faith towards Bhairavdev. A big fair is held here on Poush Krishna Dashami, which is the birthday of Lord Parshwanath.
This teerth place was established by Parampujya Shri Sthulibhadra swamiji, and hence it has much importance in Jainism. The ancient idol of Shri Parshwanath Bhagwan is very attractive and full of magical powers. Shri Bhairavji Maharaj, the adhisthayak dev of this teerth place is magically very powerfull and is famous in the world for the amazing miracles. Even if there is no house in his area but it seems like a small city by the flow of pilgrims and visitors who keep on coming here for fulfillment of their wishes.
The ancient name of this Tirth is mentioned as Virampur. Virsen and Nakorsen of the third century of the Vikram era built this temple and His Holiness Jain Acharya Sthulibhadrasuri installed the idol. In course of time, this temple was renovated many times. When Alamshsh invaded this place in the year 1280 of the Vikram era (1224 AD), the Jain Sangha kept this idol hidden in the cellar in the Kalidrah village for protection. This temple was again renovated in the fifteenth century. 120 idols were brought here from Kalidrah and this beautiful and miraculous idol was installed here as Mulnayak (main idol of the temple) in the year 1429 of the Vikram era (1373 AD). Jain Acharya Kirtiratnasuri installed the idol Bhairav here. Apart from Nakoda Parsvanatha the other Jain temples here are dedicated to Rishabhadeva and Shantinath.
How to reachIt is among the hills in the distant forest at a distance of 13 kilometers from Balotra. The nearest railway station on Jodhpur-Samadari-Barmer section of North Western Railway is at a distance of 12 kilometers from this temple. Bus service, and private vehicles from every tirth in Rajasthan to this place are available. In the compound of the temple there is a Dharamshala (disambiguation) (rest-house) with excellent lodging facilities. The other important town nearby is Jasol at distance of 5 km. There are regular buses from Jalore, Bhinmal, Sirohi, Jodhpur, Balotra, Barmer, Udaipur and Jaisalmer to Nakoda.DistanceNearest airports: Jodhpur: 110 km.
By road
- Jodhpur: 110 km.
- Barmer: 110 km.
- Balotra: 13 km.
- Pachpadra: 20 km.
- Udaipur: 300 km.
- Sirohi: 180 km.
- Shree Pavapuri Tirth Dham: 180 km.
Nakoda / Mewanagar— village —Nakoda / MewanagarLocation of Nakoda / Mewanagarin Rajasthan and IndiaCoordinates 25.83°N 72.22°E / 25.83°N 72.22°E / 25.83; 72.22Coordinates: 25.83°N 72.22°E / 25.83°N 72.22°E / 25.83; 72.22Country IndiaState RajasthanDistrict(s) BarmerTime zone IST (UTC+5:30)• Pincode • 344025
नाकोड़ा जैन मंदिर के आसपास के आकर्षण स्थल
अगर आप बाड़मेर में नाकोड़ा जैन मंदिर घूमने जाने का प्लान बना रहे है तो हम आपको बता दे बाड़मेर में नाकोडा जैन मंदिर, के अलावा भी अन्य लोकप्रिय पर्यटक स्थल है जिन्हें आप अपनी बाड़मेर की यात्रा दोरान घूम सकते हैं।
- बाड़मेर का किला
- गढ़ मंदिर
- किराडू मंदिर
- देव सूर्य मंदिर
- विष्णु मंदिर
- रानी भटियानी मंदिर
- जूना फोर्ट और मंदिर
- चेतामणि पारसनाथ जैन मंदिर
- सफ़ेद अखाडा
नाकोड़ा जैन मंदिर बाड़मेर कैसे जाये
अगर आप राजस्थान के प्रमुख शहर बाड़मेर में नाकोड़ा जैन मंदिर घूमने जाने का प्लान बना रहे है तो आप देश के किसी भी प्रमुख शहरों से सड़क, हवाई और ट्रेन मार्ग से यात्रा करके नाकोड़ा जैन मंदिर बाड़मेर पहुंच सकते हैं।
हवाई जहाज से नाकोड़ा जैन मंदिर बाड़मेर कैसे पहुँचे
अगर आप हवाई मार्ग से नाकोड़ा जैन मंदिर बाड़मेर की यात्रा करना चाहते हैं तो हम आपको बता दें कि बाड़मेर का निकटतम हवाई अड्डा जोधपुर हवाई अड्डा है जो बाड़मेर से लगभग 220 किमी की दूरी पर स्थित है। जोधपुर हवाई अड्डा के लिए दिल्ली, मुंबई, जयपुर और उदयपुर से लगातार उड़ानें उपलब्ध हैं। हवाई अड्डे से नाकोड़ा जैन मंदिर बाड़मेर जाने के लिए आप टैक्सी, केब या बस से यात्रा कर सकते हैं।
ट्रेन से नाकोड़ा जैन मंदिर कैसे जाये
अगर आप नाकोड़ा जैन मंदिर की यात्रा ट्रेन द्वारा करना चाहते हैं तो हम आपको बता दें कि नाकोड़ा जैन मंदिर का निकटतम रेलवे स्टेशन बाड़मेर रेलवे स्टेशन है जो जोधपुर और अन्य प्रमुख शहरों से रेल मार्ग द्व्रारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। तो आप ट्रेन से यात्रा करके बाड़मेर रेलवे स्टेशन पहुंच सकते है और रेलवे स्टेशन से नाकोड़ा जैन मंदिर जाने के लिए आप टैक्सी, ऑटो या अन्य स्थानीय वाहनों की मदद ले सकते हैं।
सड़क मार्ग से नाकोड़ा जैन मंदिर कैसे पहुंचे
अगर आप सड़क मार्ग से नाकोडा जैन मंदिर की यात्रा करना चाहते हैं तो बता दें कि बाड़मेर बस टर्मिनल रेलवे स्टेशन के पास स्थित है। बाड़मेर के लिए आपको जोधपुर, जयपुर, उदयपुर सहित राज्य के अधिकांश शहरों से बसें मिल जायेंगी। उसके अलावा आप टैक्सी, केब या अपनी निजी कार के माध्यम से भी नाकोड़ा जैन मंदिर पहुंच सकते हैं।
उत्थान एवं पतन तीर्थ ने अनेक बार उत्थान एवं पतन को आत्मसात किया है। विधर्मियों की विध्वंसात्मक- वृत्ति में विक्रम संवत 1500 के पूर्व इस क्षेत्र के कई स्थानों को नष्ट किया है, जिसका दुष्प्रभाव यहाँ पर भी हुआ। लेकिन संवत 1502 की प्रति के पश्चात् पुन: यहाँ प्रगति का प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में तीनों मंदिरों का परिवर्तित व परिवर्धित रूप इसी काल से सम्बंधित है। संवत 1959 - 60 में साध्वी प्रवर्तिनी श्री सुन्दर जी ने इस तीर्थ के पुन: उद्धार का काम प्रारंभ कराया और गुरु भ्राता आचार्य श्री हिमाचल सूरीजी भी उनके साथ जुड़ गये। इनके अथक प्रयासों से आज ये तीर्थ विकास के पथ पर निरंतर आगे बढ़ता रहा है। मूल नायक श्री नाकोडा पार्श्वनाथ जी के मुख्य मंदिर के अलावा प्रथम तीर्थंकर परमात्मा श्री आदिनाथ प्रभु एवं तीसरा मंदिर सोलवें तीर्थंकर परमात्मा श्री शांतिनाथ प्रभु का है। इसके अतिरिक्त अनेक देवालय, ददावाडियाँ एवं गुरुमंदिर है जो मूर्तिपूजक परंपरा के सभी गछों को एक संगठित रूप से संयोजे हुए है। तीर्थ स्थान प्राय: सभी केंद्र स्थानों से पक्की सड़क द्वारा जुड़ा हुआ है। श्री नाकोडा तीर्थ ट्रस्ट यात्रियों के लिए निवास, भोजन, पुस्तकालय, औषधालय आदि की सभी प्रकार की व्यवस्था सहर्ष करता है। मंदिर के खुलने का समय गर्मी (चैत्र सुदी एकम से कार्तिक वदी अमावस तक) प्रातः : 5:30 बजे से रात्रि 10:00 बजे तक सर्दी (कार्तिक सुदी एकम से चैत्र वदी अमावस तक) प्रातः : 6:00 बजे से रात्रि : 9:30 बजे तक विशेष
नाकोड़ा जी तीर्थ जोधपुर से बाड़मेर जाने वाले रेल मार्ग के बलोतरा जंक्शन से कोई 10 किलोमीटर पश्चिम में लगभग 1500 फीट ऊंची पहाड़ियों से घिरी हुईं पवित्र घाटी के नाके पर स्थित है। इसके लगभग 7-8 किलोमीटर उत्तर में वैष्णवों का सुप्रसिद्ध खेड़ मंदिर, तथा एक किलोमीटर उत्तर पश्चिम में राजपूतों और भीलों का बन्तीवाला गांव मेवानगर और चारो तरफ ऐतिहासिक बीरमपुर खंडहर विद्यमान है।
नाकोड़ा जी तीर्थ का इतिहास
परम्परागत ख्याति और रूढिवादी दंतकथाओं के अनुसार नाकोड़ा का मुख्य स्थल भगवान पार्श्वनाथ जी का मंदिर है। जो लगभग 2400 वर्ष पूर्व बना था। और यह भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। तथा इसकी पुष्टि करने के लिए नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ नामक पुस्तिका के विद्वान लेखक श्री सुरजमल संघवी ने अजमेर के पास बडली नामक गांव के पास से प्राप्त 5 वी शताब्दी के एक शिलालेख का प्रमाण के रूप में उल्लेख किया है। जन श्रुतियों के अनुसार ईसा पूर्व तीसरी सदी मे नाकोर लैन और बीरमदत्त नामक दो राजपूत भाईयों ने नाकोर नगर (स्थान अनिश्चित) और बीरमपुर नामक नगर की स्थापना अपने अपने नामों से की थी। और जैन धर्म से प्रभावित होने के कारण उन नगरों के मध्य में में सुंदर जिनालयो का निर्माण कराया था। नाकोर नगर के जिनालयों मे उस समय मूल नायक के रूप में भगवान श्री सुविधिनाथ जी की मूर्ति की स्थापना हुई थी।तत्पश्चात ईसा पूर्व पहली शताब्दी के प्रारंभ मे सम्राट के पौत्र सम्प्रति ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर आचार्य श्री सुहास्तिसूरीजी महाराज की देख रेख मे रखा। ईसा की प्रथम शताब्दी में उज्जैन के महान हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य ने विद्याधर गच्छ के आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर की निष्ठा मे भी इस तीर्थ का जिर्णोद्धार करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का जिर्णोद्धार करवाने वालों में आचार्य श्रीमान तुंगसूरी का नाम भी आता है। सन् 396 ईसवीं के बाद यहां मूल नायक सुविधिनाथ जी के स्थान पर भगवान महावीर स्वामी की स्थापना की गई थी। सातवीं और आठवीं शताब्दियां जैन धर्म का स्वर्ण युग मानी जाती है। अतः स्वभाविक ही था कि इस समय में अनेकों बार इस तीर्थ का पुनः निर्माण और विकास हुआ।
श्री नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ का इतिहास
किदवंतियों के आधार पर श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ की प्राचीनतम का उल्लेख महाभारत काल यानि भगवान श्री नेमीनाथ जी के समयकाल से जुड़ता है किन्तु आधारभूत ऐतिहासिक प्रमाण से इसकी प्राचीनता वि. सं. २००-३०० वर्ष पूर्व यानि २२००-२३०० वर्ष पूर्व की मानी जा सकती है । अतः श्री नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ राजस्थान के उन प्राचीन जैन तीर्थो में से एक है, जो २००० वर्ष से भी अधिक समय से इस क्षेत्र की खेड़पटन एवं महेवानगर की ऐतिहासिक सम्रद्ध, संस्कृतिक धरोहर का श्रेष्ठ प्रतीक है । महेवानगर के पूर्व में विरामपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध था । विरमसेन ने विरमपुर तथा नाकोरसेन ने नाकोडा नगर बसाया था । आज भी बालोतरा- सीणधरी हाईवे पर नाकोडा ग्राम लूनी नदी के तट पर बसा हुआ है, जिसके पास से ही इस तीर्थ के मुलनायक भगवन की इस प्रतिमा की पुनः प्रति तीर्थ के संस्थापक आचार्य श्री किर्तिरत्नसुरिजी द्वारा वि. स. १०९० व १२०५ का उल्लेख है । ऐसा भी उल्लेख प्राप्त होता है की संवत १५०० के आसपास विरमपुर नगर में ५० हज़ार की आबादी थी और ओसवाल जैन समाज के यंहा पर २७०० परिवार रहते थे । व्यापार एवं व्यवहार की द्रष्टि से विरमपुर नगर वर्तमान में नाकोडा तीर्थ इस क्षेत्र का प्रमुख केंद्र रहा थातीर्थ ने अनेक बार उत्थान एवं पतन को आत्मसात किया है । विधमियों की विध्वनंस्नात्मक- वृत्ति में वि.सं. १५०० के पूर्व इस क्षेत्र के कई स्थानों को नष्ट किया है, जिसका दुष्प्रभाव यंहा पर भी हुआ । लेकिन सवंत १५०२ की प्रति के पश्चात पुन्हः यंहा प्रगति का प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में तीनो मंदिरों का परिवर्तित व परिवर्धित रूप इसी काल से सम्बंधित है । इसके पश्चात क्षत्रिय राजाके कुंवर का यंहा के महाजन के प्रमुख परिवार के साथ हुये अपमानजनक व्यवहार से पीड़ित होकर समस्त जैन समाज ने इस नगर का त्याग कर दिया और फिर से इसकी कीर्ति में कमी आने लगी और धीरे धीरे ये तीर्थ वापस सुनसान हो गया । पहाड़ो और जंगलों के बीच आसातना होती रही । संवत १९५९ - ६० में साध्वी प्रवर्तिनी श्री सुन्दरश्रीजी म.सा. ने इस तीर्थ के पुन्रोधार का काम प्रारंभ कराया और गुरु भ्राता आचार्य श्री हिमाचलसूरीजी भी उनके साथ जुड़ गये । इनके अथक प्रयासों से आज ये तीर्थ विकास के पथ पर निरंतर आगे बढता विश्व भर में ख्याति प्राप्त क्र चूका है । मुलनायक श्री नाकोडा पार्श्वनाथजी के मुख्या मंदिर के अलावा प्रथम तीर्थकर परमात्मा श्री आदिनाथ प्रभु एवं तीसरा मंदिर सोलवें तीर्थकर परमात्मा श्री शांतिनाथ प्रभु का है । इसके अतिरिक्त अनेक देवल - देवलियें ददावाडियों एवं गुरूमंदिर है जो मूर्तिपूजक परंपरा के सभी गछो को एक संगठित रूप से संयोजे हुए है । इसी स्थान से जन्मे आचार्य श्री संजय मुनि महाराज सा का प्रताप भी सब जगह फैला है ।
तीर्थ के अधिनायक देव श्री भैरव देव की मूल मंदिर में अत्यंत चमत्कारी प्रतिमा है, जिसके प्रभाव से देश के कोने कोने से लाखों यात्री प्रतिवर्ष यंहा दर्शनार्थ आकर स्वयं को कृतकृत्य अनुभव करते है । श्री भैरव देव के नाम व प्रभाव से देशभर में उनके नाम के अनेक धार्मिक, सामाजिक और व्यावसायिक प्रतिन कार्यरत है । वेसे तीनो मंदिर वास्तुकला के आद्भुत नमूने है । चौमुखजी कांच का मंदिर, महावीर स्मृति भवन, शांतिनाथ जी के मंदिर में तीर्थकरों के पूर्व भवों के पट्ट भी अत्यंत कलात्मक व दर्शनीय है ।निर्माणः संवत के झरोखे से नाकोडा पार्श्वनाथ
- 1- संवत १५१२ में लाछाबाई ने भगवन आदिनाथ मंदिर का निर्माण करवाया
- 2- संवत १५१९ में सेठ मलाशाह द्वारा भगवान शांतिनाथ मंदिर का निर्माण कराया
- 3- संवत १६०४ में भगवान शांतिनाथ मंदिर में दूसरा सभा मंडल बना
- 4- संवत १६१४ में नाभि मंडप बनाया गया
- 5- संवत १६३२ में आदिनाथ मंदिर में प्रवेश द्वार निर्मित हुआ
- 6- संवत १६३४ में आदिनाथ मंदिर में चित्रों और पुतलियों सहित नया मंडप बनाया गया
- 7- संवत १६३८ में इसे मंदिर की नीव से जीर्णोधार करवाया गया
- 8- संवत १६६६-६७ में भुमिग्रह बनाया गया । १९६७ में ही आदिनाथ मंदिर में पुनह श्रृंगार चौकियों का निर्माण करवाया गया
- 9- संवत १६७८ में श्री महावीर चैत्य की चौकी का निर्माण करवाया
- 10- संवत १६८१ में तीन झरोखों के साथ श्रृंगार चौकी बनवाई गई
- 11- संवत १६८२ में नंदी मंडप का निर्माण हुआ
- 12- संवत १९१० मुलनायक शांतिनाथ भगवन की दूसरी नवीन प्रतिमा प्रतिति
- 13- संवत १९१६ में चार देवलियां बनाई गई
- 14- संवत २०४६ में श्री सिध्चकजी का मंदिर बनाया गया
- 15- संवत २०५० में मंदिर के अग्रभाग में संगमरमर का कार्य और नवतोरण व स्तंभों का कार्य निरंतर जारी
तीर्थ का अर्थ और महत्व
वह भूमि कभी बहुत सोभाग्यशाली हो उठती है, जो तीर्थ स्थल बन जाती है । जन्हा जाने पर एक पवित्र भाव आने वाले के ह्रदय में सहज पैदा हो जाता है । श्रधा और आस्था से मन भर जाता हो, ऐसी जगह केवल भूमि हे नहीं होती, व्यक्ति, पेड़-पोधे, पशु-पक्षी, नदी, नदी-तट, पहाड़, झरना, मूर्ति, मंदिर, तालाब, कुआ, कुंद आदि भी हो सकते है । घर में माता पिता को तीर्थ कहा गया है । भारत में आदिकाल से तीर्थों की परंपरा रही है । तीर्थ एक पवित्र भाव है । सभी धर्मसरणियों में तीर्थ को स्थान दिया गया है । चाहे सनातन धर्म हो, जैन-बोद्ध धर्म हो, ईसाई धर्म हो अथवा इस्लाम धर्म हो, सभी में तीर्थों की स्थापना की गई है । तीर्थ, धर्म से कम, आस्था से अधिक संचालित होता है, इसलिए तीर्थों के प्रति सभी धर्मों के लोग श्रधा भाव से जुड़ते चले आ रहे है । तीर्थ संस्कृत भाषा का शब्द है । आचार्य हेमचंद ने इसकी व्युत्पति करते हुए लिखा है - "तिर्यते संसार समुद्रोनेनेति" तीर्थ प्रवचनाधारश्तुर्विधः संघः । अर्थार्थ जिसके द्वारा संसार समुद्र को तैर क्र पार किया जाय, वह तीर्थ है । जैनियों में तीर्थकर होने की प्रथा है । कोई भी जैन साधक, साध्वी, श्रावक और श्राविका अपनी जितेन्द्रियता के आधार पर प्रथम प्रवचन में जिस स्थान और क्षण में अपना शासन (मतलब) लोगों के ह्रदय में अपना स्थान बनाने में समर्थ हो जाते है, वही तीर्थ कहा जाता है और ऐसे निर्माता को 'तीर्थकर' नाम से अभिहीत किया जाता है । जैनियों चौबीस तीर्थकर यह पद प्राप्त कर चुके है ।
सनातन धर्म में स्थलों को तीर्थ मानने की परंपरा आधिक है । भारत में कोई भी नदी और नदी तट ऐसा ऐसा नहीं होगा, वंहा तीर्थ न स्थापित होगा । तीर्थ में स्नान और देव दर्शन का भी महत्व है । जल में स्नान को भाव बाधा से मुक्ति का साधना माना है । "तीर्थ शब्द का व्यावहारिक अर्थ है- माध्यम, साधन । तदनेंन तीर्थेन घटेत । " अर्थात मार्ग, घाट आदि जिसके माध्यम से पार किया जाये । इसके अनुसार 'तीर्थ' एक घाट है, एक मार्ग है, एक माध्यम है, जिसके द्वारा भव-सरिता को जीव पार कर सकता है । इसी मार्ग को दिखाने वाला तीर्थकर है । तीर्थ सदैव अध्यात्मिक मार्ग दिखाने का कार्य करता है । व्यक्ति तीर्थ में जाकर एक पवित्र शुद्धता बोध कर सके, इसलिए तीर्थ शब्द पवित्र स्थान और तीर्थ यात्रा का उपयुक्त स्थान मंदिर आदि का बोधक होता है ।
तीर्थ शब्द का अर्थ है- तरति पापादिकं यस्मात इति तीर्थम अर्थात जिससे व्यक्ति पाप आदि का दुष्कर्मो से तर जाय- वह तीर्थ है । महाभारत में कहा है- जिस प्रकार मानव शरीर के सिर, दाहिना हाथ आदि अंग अन्य अंगो से अपेक्षाकृत पवित्र मानें जाते है, उसी प्रकार प्रथवी के कुछ स्थल पवित्र माने जाते है । पवित्रता ही तीर्थ का अवचछेक तत्त्व है, लक्षण है । तीर्थ की पवित्रता तीन कारणों से मान्य होती है - जेसे स्थान की विलक्षणता या प्राकृतिक रमणीयता के कारण, जल के किसी विशेष गुण या प्रभाव के कारण अथवा किसी तेजस्वी तपःपुत ऋषि मुनि के वंहा रहने के कारण । धर्म शास्त्र में कहा गया है, वह स्थान या स्थल या जलयुक्त या जलयुक्त स्थान जो अपने विलखण स्वरुप के कारण पुण्यार्जन की भावना को जाग्रत कर सके। इस प्रथ्वी पर स्थित भौम तीर्थों के सेवन का यथार्थ लाभ तभी मिल सकता है, जब इनसे चित शुद्ध हो मन का मैल मिटे, इसलिए आचार्यों ने सत्य, क्षमा, इन्द्रिय संयम, अंहिसा, विनम्रता, सभी के प्रति प्री व्यवहार, आदि मानस तीर्थों का विधान भी किया गया है । मानस तीर्थ और भौम तीर्थ दोनों का समन्वय जरुरी है । भारत में सैकड़ो ऐसे तीर्थ है । मुसलमानों को पवित्र तीर्थ स्थल मकका मदीना है । बोधों के चार तीर्थ स्थल है - लुम्बिनी, बोध गया, सारनाथ एवं कुशीनरा । इसाइयों का जेरुसलेम सर्वोच्च पवित्र स्थल है । जैन परंपरा में भी तीर्थ के दो र्रोप माने गए है - जंगमतीर्थ और स्थावर तीर्थ ।
स्थावर तीर्थ के भी दो रूप माने गए है - एक सिद्ध तीर्थ (कल्याण भूमि) और - दूसरा चमत्कारी या अतिशय तीर्थ । सिद्ध तीर्थ में वे स्थान माने जाते है, जहा किसी न किसी महापुरुष के जन्मादिक कल्याणक हुए हों, वे सिद्ध, बुद्ध ओर मुक्त हुए हो अथवा उन्होंने विचरण किया हो । उन स्थानों पे उनकी स्मृति स्वरुप वहॉ मंदिर, स्तूप, मूर्तियाँ स्थापित की गई हों । ऐसे स्थानों पे सिद्वाचल, गिरनार, पावापुरी, राजगृह, चम्पापुरी और सम्मेत शिखर आदि मैं जाते है । चमत्कारी तीर्थ वे क्षेत्र माने जाते है, जन्हा कोई भी महापुरुष सिद्ध तो नहीं हुये है, किन्तु उस क्षेत्र में स्थापित उन महापुरषों / तीर्थकरों की मूर्तियों अतिशय चमत्कार पूर्ण होती है, और उस क्षेत्र के मंदिर बड़े विशाल, भव्य एवं कलापूर्ण होते है । ऐसे स्थानों में आबू, रणकपुर, जैसलमेर, नाकोडा, फलौदी, तारंगा, शंखेश्वर आदि माने जाते है ।तीर्थों का महत्व
तीर्थ स्थानों का महत्व त्रिविध रूप में विभाजित किया जाता है -
1- ऐतिहासिक
2- कला और
3- चमत्कार
1- ऐतिहासिक - इन तीर्थ सीनों का लोक मानस पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है, उससे उन स्थानों की प्रसिधी बढती जाती है । एतिहासिक द्रष्ठी से ज्यों ज्यों वह व्यक्ति या स्थान पुराना होता जाता है त्यों त्यों प्राचीनतम के प्रति विशेष आग्रहशील होने के कारण उसका महत्व भी प्रतीति कर के अपने को गौरवशाली, धन्य, क्रत्पुणय मानते है । नाम की भूख मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है । इस नाम्लिप्सा से विरल व्यक्ति ही ऊपर उठ पाते है । इसलिए वहां के कार्यकलापों को स्थायित्व देने और कीर्ति को चिरजीवित करने के लिए मूर्तियों, मंदिरों और चरण पादुकाओं पर लेख और प्रशस्तियाँ खुदवाई जाती है । उसमे उनके वंश, परिवार और गुरुजनों के नामों के साथ उनके विशी कार्यों का भी उल्लेख किया जाता है । इस द्रष्टि से आगे चलकर वे लेख और प्रशस्तियाँ इतिहास के महत्वपूर्ण साधन बन जाते है । उन तीर्थ स्थानों पे जो कोई विशी कार्य किया जाता है उसका गौरव उनके वंशजों को मिलता है । अतः उनके वंशज तथा अन्य लोग धार्मिक भावना में या अनुकरणप्रिय होने के कारण देखा - देखी अपनी ओर से भी कुछ स्मारक या स्मृति चिन्ह बनाने का प्रयत्न करते है । इस तरह धार्मिक भावना को भी बहुत प्रोत्साहन मिलता है । और इतिहास भी सुरक्षित रहता है ।
2- कला - इन तीर्थों और पूजनीय स्थानों का दूसरा महत्त्व कला की द्रष्टि से है । अपनी अपनी शक्ति और भक्ति के निर्माण करना वाले अपनी कलाप्रियता का परिचय देते है । इससे एक ओर जहाँ कलाकारों को प्रबल प्रोत्साहन मिलता है वही दूसरी ओर कला के विकास में भी बहुत सुविधा उपस्थित हो जाती है । इस तरह समय पे स्थापत्य कला, मूर्तिकला ओर साथ ही चित्रकला के अध्ययन करने की द्रष्टि से उन स्थानों का दिन प्रतिदिन अधिकाधिक महत्त्व बताया जाता है । सभी व्यक्ति गहरी धर्म भवना वाले नहीं होते है, अतः कलाप्रेमी व्यक्ति भी एक दर्शनीय ओर मनोहर कलाधाम की कारीगरी को देखते हुए उनके प्रति अधिकाधिक आकर्षित होने लगते है । जैन हे नहीं जैनेतर लोगो क लिए भी वे कलाधाम दर्शनीय स्थान बन जाते है । इस द्रष्टि से ऐसे स्थानों का सार्वजनिक महत्व भी सर्वाधिक होता है। सम-सामायिक ही नहीं, किन्तु चिरकाल तक वे जन-समुदाय के आकर्षण केंद्र बने रहते है । आबू रणकपुर के मंदिर इसी द्रष्टि से आज भी आकर्षण के केंद्र बने हुए है ।
3- चमत्कार - तीसरा भी एक पहलू है - चमत्कारों से प्रभावित होना । जन समुदाय अपनी मनोकामनाओं को जहाँ से भी, जिस तरह से भी पूर्ति की जा सकती है उसका सदैव प्रयत्न करते रहते है, क्योंकि जीवन में सदा एक समान स्थिति नहीं रहती । अनेक प्रकार के दुःख, रोग और आभाव से पीड़ित होते रहते है । अतः जिसकी भी मान्यता से उनके दुःख दुःख निवारण और मनोवांछा पूर्ण करने में याताकाचित भी सहायता मिलती है जो सहज ही वह की मूर्ति, अद्धिता आदि के प्रति लोगो का आकर्षण बता जाता है ।
*Kuldeep Dave {Web Developer}
Should give a chance to serve once